पहले धरती और बादल पास पास रहते थे। इतने पास कि एक-दूसरे को छू लेते। तब धरती बहुत हल्की थी। इतनी हल्की कि हवा में उड़ जाती।
एक दिन धरती ने कहा - 'थक गई हूँ। कहीं दूर घूमने जाना चाहती हूँ।' बादल ने कहा 'तो जा न। किसने रोका है। लेकिन लौट आना। मैं तुझे याद करूँगा।'
धरती हँसते हुए कहने लगी - 'ये बात है। लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा?' बादल सोचने लगा। फिर बोला - 'मैं बरसने लगूँगा। बारिश करूँगा। समझ लेना कि मैं याद कर रहा
हूँ। लेकिन याद रखना। बस लौट आना। नहीं तो मैं नाराज हो जाऊँगा।'
धरती शरमा गई। धरती सकुचाई। धरती ने नजरें झुका लीं। फिर पूछने लगी -'लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा?' बादल फिर सोचने लगा। कहने लगा - 'मैं ओले गिराऊँगा। तूझे ओलों
से ढक दूँगा। समझ लेना कि मैं नाराज हो रहा हूँ।'
धरती घूमने चली गई। धरती नीचे और नीचे की ओर टपक पड़ी। कई दिन बीत गए। बादल धरती को याद करने लगा। याद में बरसने लगा। इतना बरसा कि बस बरसता रहा।
धरती हरी-भरी हो गई। धरती पर पेड़ उग आए। पहाड़ बन गए। नदियाँ बन गईं। समुद्र बन गया। खेतियाँ लहलहाने लगीं। पशु-पक्षियों ने धरती को बसेरा बना लिया। धरती भारी
हो गई। अपनी धुरी पर घूमने लगी। तभी से धरती घूम रही है। आज भी बादल धरती को याद करता है। खूब बरसता है। जब नाराज होता है तो ओले बरसाता है।